"रिश्ते"
जिंदगी की भागदौड़ में
अपने लिए जीना भूल गई
रिश्तों को ख़ुश करते-करते
अपने आज को भूल गई
किसी को मनाया
किसी को समझाया
बस यही दस्तूर निभाया
फिर भी आज तक किसी को ख़ुश नहीं पाया
कभी सोचूं क्या यही जिंदगी है
मैंने तो जिंदगी जी ही नहीं
क्यों है दूसरों की परवाह मुझे?
क्यों रहती है फ़िकर?
मैं अपने लिए जीऊँ!
जीना चाहती हूँ अपनी जिंदगी
विना परवाह किए
धूल-मिट्टी में खेलते बच्चों जैसे
जिन्हें नहीं है ख़बर दुनिया की
ज़हरीली सफ़ाई की।
(डॉ. चंचल भसीन)